अभिव्यक्ति की सीमा ?
तकरीबन
एक साल पहले फ्रान्स में एक शिक्षक अपने विद्यार्थियों को उदाहरण देते हुए मोहम्मद
पैगम्बर पर मज़ाक करते हैं. परिणामस्वरूप उनकी हत्या कर दी जाती है. गौरतलब है की भारत
में एम एम कल्बुर्गी और गौरी लंकेश की भी इन्ही कारणों(जैसे धार्मिक भावनाऐं आहत
करना) से हत्या कर दी जाती है.
सवाल ये है की इक्कीसवीं सदी में सवाल पूछना इतना मुश्किल कब बन गया या बना दिया गया.
क्या धार्मिक कट्टरवाद इतना बढ गया है कि तर्कसंगत बहस के लिए अब हमारे लिविंग रूम
से लेकर, दफ्तर, स्कूल, कॉलेज, में जगह कम होती जा रही है.
कौनसी बात से किसकी धार्मिक भावना आहत हो जाएगी इसका आकलन करना अब और भी मुश्किल
होता जा रहा है.
अभिव्यक्ति का अधिकार संवैधानिक तो है लेकिन उसकी प्रमाणिकता और जवाबदेही को नज़रअंदाज़ नही किया
जाना चाहिये. और धार्मिक बहसों में अक्सर ऐसी चूक देखी गई है. क्योंकि लोगों की
आस्था का कोई एक प्रमाणित स्रोत है ही नही. प्राचीन काल से लेकर अब तक जितने भी
धार्मिक गुरू हुऐ हैं उन्होने अपनी अपनी नैतिकता के अनुरूप बातें कही हैं और लिखी
हैं. जिसने जितना जाना, सुना या पढ़ा उसका ज्ञान और
उसकी सोच उतने तक ही सिमट गया. इसलिए बहस जरुरी है ताकि दूसरों की जानकारी हम तक
पहुँचे और हमारे सोचने का दायरा विकसित हो सके.
हालांकि यह तब तक संभव नहीं है जब तक हमारे समाज में विविध समुदायों के बीच अविश्वास की
खाई है. दुर्भाग्यवश कुछ सत्ता प्रिय लोग इस खाई को भरने के बजाय इसे गहरा करने के
काम में जुटे हैं. इसलिए आज ये और भी जरुरी हो गया है की अभिव्यक्ति की सीमा तय की
जाऐ. और ये जिम्मेदारी आज नहीं तो कल न्यायपालिका को उठानी ही होगी. साथ ही ये भी
सुनिश्चित किया जाना चाहिए की समाज में हेट स्पीच के कानून का सख्ती से पालन हो.
समाज
को भी ये समझना पड़ेगा कि धार्मिक कट्टरता हमे कहीं नहीं ले जाएगी और इसका खामियाज़ा
आने वाली पीढ़ी को भुगतना पड़ेगा, जो भुगत भी रहे हैं. आये दिन धर्म की बहसों के
बीच जरुरी मुद्दे दफ़न हो जाते हैं. रोजगार, महंगाई जैसे कितने मुद्दे हैं जो कभी अपने
नतीजे तक पहुँच ही नहीं पाते हैं. आज हमारे देश की हालत ये है की कुछ समुदायों को
अपने वजूद की लड़ाई लड़नी पड़ रही है, शिक्षा और रोजगार तो बहुत दूर की बात है.
अल्पसंख्यकों के खिलाफ झूठे मुक़दमे दर्ज करना अब आम होता जा रहा है. यहाँ तक की
उनके समर्थन में आये बहुसंख्यक लोगों पर भी निशाना साधा जा रहा है. आज भारत में
अपराध की सारी परिभाषा धर्म तक सिमट कर रह गयी है. कभी बीफ के नाम पर तो कभी
मस्जिदों में लाउड स्पीकर को लेकर आये दिन देश में शांति व्यवस्था को भंग करने का
प्रयास जारी है.
इस
देश की यही तो विडम्बना है, कि विकास की गाड़ी जब जब रफ़्तार पकड़ती है उसके रस्ते में
धर्म नाम का ब्रेकर आ जाता है. और फिर वही, ढाक के तीन पात!
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